पुण्य किसका ? - बेताल पच्चीसी - तीसरी कहानी


Vikram Aur Betal - Third Story
Vikram Aur Betal - Third Story


वर्धमान नगर में एक रूपसेन नाम का राजा राज्य करता था। एक दिन उसके यहाँ वीरवर नाम का एक राजपूत नौकरी के लिए आया। राजा ने उससे पूछा कि उसे ख़र्च के लिए क्या चाहिए तो उसने जवाब दिया, एक हज़ार तोला सोना। यह सुनकर सबको बड़ा आश्चर्य हुआ। राजा ने पूछा, “तुम्हारे साथ और कौन-कौन है?” उसने जवाब दिया, “मेरी स्त्री, बेटा और एक बेटी।” राजा को और भी अचम्भा हुआ। आख़िर चार जने इतने धन का क्या करेंगे? फिर भी राजा ने उसकी बात मान ली।


उस दिन से वीरवर रोज हज़ार तोले सोना भण्डारी से लेकर अपने घर आता। उसमें से आधा ब्राह्मणों में बाँट देता, बाकी के दो हिस्से करके एक मेहमानों, वैरागियों और संन्यासियों को देता और दूसरे से भोजन बनवा कर पहले ग़रीबों को खिलाता, उसके बाद जो बचता, उसमे से पहले स्त्री-बच्चों को खिलाता, आप खाता। काम यह था कि शाम होते ही ढाल-तलवार लेकर राज के पलंग की चौकीदारी करता। राजा को जब भी कभी रात को कुछ ज़रूरत होती, वह हाज़िर रहता।


एक बार आधी रात के समय राजा को मरघट की ओर से किसी के रोने की आवाज़ आयी। उसने वीरवर को पुकारा तो वह आ गया। राजा ने कहा, “जाओ, पता लगाकर आओ कि इतनी रात गये यह कौन रो रहा है ओर क्यों रो रहा है?”


वीरवर तत्काल वहाँ से चल दिया। मरघट में जाकर देखता क्या है कि सिर से पाँव तक एक स्त्री गहनों से लदी कभी नाचती है, कभी कूदती है और कभी सिर पीट-पीटकर रोती है। लेकिन उसकी आँखों से एक बूँद आँसू की नहीं निकलती। वीरवर ने पूछा, “तुम कौन हो? क्यों रोती हो?”


उसने कहा, “मैं राज-लक्ष्मी हूँ। और मैं रोती इसलिए हूँ कि राजा के घर में खोटे काम होते हैं, इसलिए वहाँ दरिद्रता का डेरा पड़ने वाला है। मैं वहाँ से चली जाऊँगी और राजा दु:खी होकर एक महीने में ही मर जायेगा।”


यह बात सुनकर वीरवर ने पूछा, “इससे बचने का कोई उपाय है!”


स्त्री बोली, “हाँ, है। यहाँ से पूरब में एक देवी का मन्दिर है। अगर तुम उस देवी पर अपने बेटे का शीश चढ़ा दो तो विपदा टल सकती है। और फिर राजा सौ बरस तक बेटोक राज करेगा।”


वीरवर घर आया और अपनी स्त्री को जगाकर सब हाल कहा। स्त्री ने बेटे को जगाया, बेटी भी जाग पड़ी। जब बालक ने बात सुनी तो वह खुश होकर बोला, “आप मेरा शीश काटकर ज़रूर चढ़ा दें। एक तो आपकी आज्ञा, दूसरे स्वामी का काम, तीसरे यह देह देवता पर चढ़े, इससे बढ़कर बात और क्या होगी! आप जल्दी करें।”

वीरवर ने अपनी स्त्री से कहा, “अब तुम बताओ।”


स्त्री बोली, “स्त्री का धर्म पति की सेवा करने में है।”


नादान, चारों जने देवी के मन्दिर में पहुँचे। वीरवर ने हाथ जोड़कर कहा, “हे देवी, मैं अपने बेटे की बलि देता हूँ। मेरे राजा की सौ बरस की उम्र हो।”

इतना कहकर उसने इतने ज़ोर से खांडा मारा कि लड़के का शीश धड़ से अलग हो गया। भाई की यह हाल देख कर बहन ने भी खांडे से अपना सिर अलग कर डाला। बेटा और बेटी चले गये तो दु:खी माँ ने भी उन्हीं का रास्ता पकड़ा और अपनी गर्दन काट ली। वीरवर ने सोचा कि जब घर में कोई नहीं रहा तो मैं ही जीकर क्या करूँगा। उसने भी अपना सिर काट डाला। राजा को जब यह मालूम हुआ तो वह वहाँ आया। उसे बड़ा दु:ख हुआ कि उसके लिए चार प्राणियों की जान चली गयी। वह सोचने लगा कि ऐसा राजा होने से धिक्कार है! यह सोच उसने तलवार उठा ली और जैसे ही अपना सिर काटने को हुआ कि देवी ने प्रकट होकर उसका हाथ पकड़ लिया और बोली, “हे राजन्, मैं तेरे साहस से प्रसन्न हूँ। तू जो वर माँगेगा, सो दूँगी।”

राजा ने कहा, “हे देवी, अगर तुम मुझसे प्रसन्न हो तो इन चारों को वापस जिला दो।”


देवी ने अमृत छिड़ककर उन चारों को फिर से जिला दिया।


इतना कहकर बेताल बोला, हे राजन, अब बताओ, कि सबसे ज्यादा पुण्य किसका हुआ?”


राजा बोला, “उस राजा का।”


बेताल ने पूछा, “क्यों?”


राजा ने कहा, “स्वामी के लिए चाकर का प्राण देना धर्म है; लेकिन चाकर के लिए राजा का राजपाट को छोड़, जान को तिनके के समान समझकर देने को तैयार हो जाना बहुत ही बड़ी बात है।”


यह सुन बेताल ग़ायब हो गया और पेड़ पर वापस जा लटका। बेचारा राजा दौड़ा-दौड़ा वहाँ पहुँचा ओर उसे फिर से पकड़कर लाया तो बोताल ने चौथी कहानी कही।


सम्पूर्ण बैताल पचीसी | Complete Baital Pachchisi Stories In Hindi